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बाल अपराधों की बढ़ती संख्या देश के भविष्य के लिए खतरे का संकेत

NAV VICHAR
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पिछले कुछ वर्षों में अपने देश में बच्चों में अापराधिक प्रवृत्ति में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है जो अत्यन्त ही चिंता का विषय है। इस बात में दो मत नहीं हो सकता कि बाल-अपराधों की बढ़ती संख्या हमारे देश के भविष्य के लिए खतरे का संकेत है। बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं, इन्हे संस्कारवान, सद्चरित्र और सुदृढ़ बनाने का दायित्व परिवार, समाज और सरकार का है, लेकिन सामाजिक कमजोरियों और सरकार के ढुलमुल रवैये के चलते हमारे बच्चे पतन की ओर अग्रसित हो रहे हैं।


child crime


बाल अपराधों की बढ़ती संख्या हमारे समाज के माथे एक ऐसा कलंक है, जिससे धुलने के प्रयास तुरंत शुरू किये जाने चाहिए। जहाँ एक तरफ इसके लिए परिवार, माँ-बाप को सतर्क होने की जरूरत है, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक स्तर पर भी इसके लिए अलग से कदम उठाने की आवश्यकता है।


भारतीय संविधान में निहित वर्तमान कानून के अनुसार, सोलह वर्ष की आयु तक के बच्चे अगर कोई ऐसा कृत्य करें जो समाज या कानून की नजर में अपराध है, तो ऐसे अपराधियों को बाल अपराधी की श्रेणी में रखा जाता है। यद्यपि निर्भया कांड के बाद सोलह साल की उम्र पर अनेक वाद विवाद हुए। ऐसा माना जाता है कि बाल्यावस्था और किशोरावस्था में व्यक्तित्व के निर्माण तथा व्यवहार के निर्धारण में बच्चे को मिल रहे वातावरण का बहुत बड़ा हाथ होता है।


वास्तव में बच्चों द्वारा किए गए अनुचित व्यवहार के लिये बालक स्वयं नहीं, बल्कि उसकी परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं। इसी वजह से भारत समेत अनेक देशों में किशोर अपराधों के लिए अलग कानून और न्यायालय व न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है। इसमें ऐसे न्यायाधीशों और वकीलों की नियुक्ति की जाती है जो बाल मनोविज्ञान के जानकार होते हैं। बाल अपराधियों को दंड नहीं, बल्कि उनकी केस हिस्ट्री को जानने और उनके वातावरण का अध्ययन करने के बाद उन्हें जेल में नहीं वरन सुधार गृह में रखा जाता है। वहां उनकी दूषित हो चुकी मानसिकता को सुधारने का प्रयत्न किए जाने के साथ उनके साथ उनके भीतर उपज रही नकारात्मक भावनाओं को भी समाप्त करने की कोशिश की जाती है।


ऐसे बच्चों के साथ दण्डात्मक व्यवहार न करके उनसे काउंसलिंग करके उनकी नकारात्मकता को दूर करने का प्रयास किया जाता है। यदि गौर करें तो बाल अपराध मुख्‍यतः दो प्रकार के होते हैं, पहला समाजिक होता है तो दूसरा पारिवारिक होता है। यद्यपि पारिवारिक अपराधों के लिए किसी दंड की व्यवस्था भारतीय कानून में नहीं है, लेकिन फिर भी 16 वर्ष से कम आयु वाले बच्चे अगर ऐसा कोई भी काम करते हैं, जिसके दुष्प्रभावों का सामना उनके परिवार को करना पड़ता है तो वह बाल अपराधी ही माने जाते हैं।


माता-पिता की अनुमति के बिना घर से भाग जाना, अपने पारिवारिक सदस्यों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, स्कूल से भाग जाना, ऐसी आदतों को अपनाना जो ना तो बच्चों के लिए हितकर है ना ही परिवार के लिए, परिवार के नियंत्रण में न रहना। लेकिन अगर बच्चे ऐसी आदतों को अपनाएं जिससे समाज प्रभावित होता है, तो निश्‍चय ही उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता, जैसे चोरी करना, लड़ाई, झगड़ा करना, यौन अपराध करना, जुआ खेलना, शराब पीना, अपराधी गुट या समूह में शामिल होना, ऐसी जगहों पर जाना जहां बच्चों का जाना पूर्णत वर्जित है, दुकान से कोई समान उठाना, किसी के प्रति भद्दी और अभद्र भाषा का प्रयोग करना।


बाल अपराधों की बढ़ती संख्या से सभी चिंतित हैं। अधिकतर मामले ऐसे भी हैं, जहाँ बच्चे घरेलू तनाव के कारण अपराध कर देते हैं। एक और कारण गरीबी और अशिक्षा भी है। बाल अपराधियों की संख्या गावों की अपेक्षा शहरों में अधिक है। जहाँ तक इनके दण्ड की बात है तो कोर्ट यह मानता है कि इस उम्र के बच्चे अगर जल्दी बिगड़ते हैं और उन्हें अगर सुधारने का प्रयत्न किया जाए तो वह सुधर भी जल्दी जाते हैं, इसीलिए उन्हें किशोर न्याय सुरक्षा और देखभाल अधिनियम 2000 के तहत सजा दी जाती है।


इस अधिनियम के अंतर्गत बाल अपराधियों को कोई भी सख्त या कठोर सजा ना देकर उनके शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था करके सकारात्मक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जाता है। उन्हें तरह तरह की व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर आने वाले जीवन के लिए आत्म-निर्भर बनाने की भी कोशिश की जाती है। समय के साथ-साथ सन् 2006 में बाल अपराधियों को सुधारने के उद्देश्य से बनाए गए अधिनियम में कुछ संशोधन किए गए, जिसके अनुसार किसी भी बाल अपराधी का नाम, पहचान या उसकी निजी जानकारी सार्वजनिक करना एक दंडनीय अपराध माना जाता है। ऐसा इसलिए भी किया गया, ताकि उनके अतीत से उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो।


भारतीय जीवन जीने की शैली में आये परिवर्तन, टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया आदि ने हमारे परिवार में संवाद का अभाव पैदा कर दिया है, जिससे हम बच्चों की छोटी-मोटी समस्याओं के बारे में न तो जान ही पाते हैं और न ही उसका हल निकालने की कोशिश करते हैं। वास्तव में आपसी बातचीत और पारिवारिक अपनेपन से अभिभावकों और बच्चों के बीच की दूरी और दरार को मिटाकर बच्चों के मन से आपराधिक भावना दूर की जा सकती है। हमें बच्चों को भारतीय परंपरा, रीति रिवाज़, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं से जोड़े रखना होगा, तभी हम उन्हें भटकने से रोक पाएंगे और उनके बचपन को सुदृढ़ता प्रदान कर पाएंगे।

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