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अपनों से ही हारी ‘हिंदी’

NAV VICHAR
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हमारी भावात्मक अभिव्यक्ति का साधन होती है हमारी भाषा . भाषा का सम्बन्ध भावना से होता है . जहाँ तक हिंदी का सवाल है तो पुरे विश्व में हिंदी बोलने वालो की संख्या ७० करोड़ के लगभग है . लेकिन ये अत्यंत ही खेदजनक है की हिंदी भाषा को लेकर सबसे ज्यादा समस्या और विवाद अपने देश में ही हुआ है लेकिन इन सबके बावजूद जन जन की भाषा होने के नाते इसकी प्रगति कभी रुकी नहीं . विश्व स्तर पर भी आज हिंदी विश्व की प्रधान महत्वपूर्ण भाषाओँ में से एक है . यद्यपि दिन प्रतिदिन हिंदी की चुनौतियाँ बढ़ती ही जा रही है . भारत और अन्य देशों में हिंदी की लोकप्रियता के पीछे मूल कारण हमारी फिल्मे है . इसके साथ ही साथ साहित्य के प्रोत्साहन और उसके पठन पाठन के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक कार्यक्रमो का आयोजन भी कारण है . लेकिन इतना सब होने के बाद भी जब संविधान में राजभाषा के रूप में स्वीकृत हिंदी के विकास और उपयोग की बात आती है तो इस मामले में हमारी सोच अत्यंत ही संकुचित हो जाती है. अपने देश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक बोले जाने वाली हिंदी भाषा का प्रयोग हम शासन में , अपने दफ्तरों में और रोजमर्रा के पत्राचारों में नहीं कर पाते . देश की स्वतंत्रता मिलने पर काफी जद्दोजहद के बाद 14 सितंबर 1949 को हिंदी को संविधान में राजभाषा के रूप में शामिल किया गया. उस समय ये लगने लगा था कि अब हिंदी सरकारी काम काज की भाषा के रूप में इस्तेमाल होने लगेगी . लेकिन ये एक भ्रम ही साबित हुआ और हिंदी का स्थान अंग्रेजी के बाद उसके अनुवाद के रूप में होने लगा . सरकारी कार्यालयों में हिंदी अंग्रेजी के बाद ही प्रयोग होने लगी. राजभाषा के विकास में समस्या उसके निश्चित अर्थ को लेकर हुई फिर उसके व्याकरण के कारण इसे कठिन माना जाता है. हिंदी बोलचाल में तो सरल है पर सरकारी भाषा के रूप में लिखने में सभी को कठिनाई होती है . व्याकरण की कठिनाई से उसे लिखने और उसकी अभिव्यक्ति में समस्या आती है . भाषा में अगर व्याकरण पर ध्यान दिया जाता है तो उसकी उड़ान प्रतिबंधित हो जाती है . वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी का महत्त्व भी हिंदी के विकास में बाधक सिद्ध हो रहा है . अपने देश में ज्यादातर नौकरियों में भर्ती के लिए अंग्रेजी जरूरी है , आवेदको की तर्क शक्ति , गणित , अंग्रेजी भाषा के ज्ञान की परीक्षा तो होती है पर हिंदी ज्ञान की कोई परीक्षा नही होती . इंटरव्यू के लिए अंग्रेजी जरुरी है . कभी नहीं सुना गया की किसी का इंटरव्यू पूरी तौर पर हिंदी में लिया गया . कम्प्यूटर, विज्ञानं , प्रबंधन आदि सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी का बोल बाला है , यहाँ तक की इन्हें हिंदी में पढ़ाने वालो की कमी है . देश की स्वतंत्रता के 69 वर्ष बाद भी हिंदी का प्रयोग और विकास जिस गति से होना चाहिए था वो नहीं हो पा रहा है . सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में हिंदी में काम करना वहां के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए मात्र एक संवैधानिक मजबूरी है . वे मन से इसे प्रयोग नहीं करते . अगर गौर करे तो हम बचपन से लेकर बुढ़ापे तक अंग्रेजी सीखने और सीखने की कोशिश में ही लगे रहते है , यदि यही प्रयास हम हिंदी के लिए करते तो शायद राजभाषा की स्तिथि कुछ और होती . वर्तमान शिक्षा में हमारे घरों के बच्चे हिंदी को बोझ समझते है , स्कूलों में न तो स्तरीय शिक्षक है और न ही उनमे रोचकता से पढ़ाने का ढंग. सच तो ये है कि जबतक हिंदी को केवल संवैधानिक मजबूरी माना जाएगा तबतक इसका कुछ भी भला होने वाला नहीं . हमें ये भली भांति समझना चाहिए कि हिंदी जैसी समृद्धि भाषा कोई और नहीं . हिंदी भाषा का शब्द भण्डार और इसकी अभिव्यक्ति क्षमता अंग्रेजी से कई गुना अच्छी है , ये भाषा सर्वग्राह्य है . हर वर्ष सितंबर माह को हिंदी मॉस के रूप में मनाये जाने कि औपचारिकता हम निभाते है , आखिर इसकी आवश्यकता ही क्या है . अपनी राजभाषा के लिए मॉस मनाने की जरुरत समझ के परे है . इसे हमें ही बदलना होगा . हमें संकुचित भावना से ऊपर उठ कर इसे खुले दिल से अपनाना होगा तभी राजभाषा के रूप में हिंदी को उसका स्थान प्राप्त होगा .

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