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पिछले कुछ वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण एक विश्व व्यापी समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है . संसार का लगभग हर देश प्रदुषण की भयावहता से भयभीत है . अपने देश में भी प्रतिवर्ष तापमान का स्तर बढ़ता ही जा रहा है। जिसकी बड़ी वजह दिन प्रतिदिन हमारी धरती का गर्म होते जाना है । अब तो वे जगह भी जहाँ साल में लगभग छह महीने ठण्ड रहती थी वहां भी नौ दस महीने गर्मी पड़ती है . किसी किसी राज्य में तो इसकी भयावहता इस स्तर पर पहुंच गयी है कि वहां आम जन जीवन दूभर हो गया है। प्रतिवर्ष पुरे देश में हजारों लोगों की मौत गर्मी के कारण हो जाती है . अनेक राज्य सूखे की चपेट में है . ये सब हमारी पर्यावरण के प्रति लापरवाही का ही तो नतीजा है .
ऐसा होने के कारणों पर यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो किसी हद तक हम सब जिम्मेदार है। हमने अपनी सुविधा और आनंद के लिए , नए नए संसाधन जुटाने के लिए पेड़ पौधों , जंगलों का विनाश किया है। औद्योगीकरण और प्रगति के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बुरी तरह किया है। छोटी–बड़ी औद्योगिक इकाईयों¸ फैक्टरियों तथा लाखों– करोणों वाहनों के चलने से पैदा हुए वायु प्रदुषण के कारण और उससे भी अधिक इनके अपूर्ण दोहन से निकलने वाली काबर्न–डाई–ऑक्साइड तथा मोनोऑक्साइड जैसी गैसें इस धरती के ताप को बढ़ाने में मुख्य भूमिका अदा कर रही हैं।
नए नए स्थापित होते उद्योगों और नए पैदा होते शहरों और नगरों के हमने धरती की हरियाली का विनाश किया है । हरियाली लगातार कम होती जा रही है और बिना किसी नियोजित योजना के शहर¸ सड़कें तथा फैक्टरियां बढ़ती जा रही है । जिसके परिणामस्वरुप वातावरण में अन्य प्रदूषण फैलाने वाले कारकों के साथ साथ काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है । क्यों कि ये पेड़–पौधे ही हैं जो वातावरण से काबर्न–डाई–ऑक्साइड का उपयोग कर मूल–भूत भोजन काबोर्हाइडेट्स का संश्लेषण करते हैं तथा ऑक्सीज़न की मात्रा की वातावरण में वृद्धि करते हैं।
एक अध्ययन के अनुसार एंटाक्टिर्का में जमी बर्फ़ की अंदरूनी परतों में फंसे हवा के बुलबुलों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि आज वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा पिछले साढ़े छः लाख वर्षों के दौरान किसी भी समय मापी गई अधिकतम काबर्न–डाई–ऑक्साइड की तुलना में 27 प्रतिशत अधिक है। बढ़ती काबर्न–डाई–ऑक्साइड वातावरण में शीशे का काम करती है। शीशा प्रकाश को पार तो होने देता है लेकिन ताप को नहीं। सूर्य की किरणें वातावरण में उपस्थित वायु को पार कर धरती तक तो आ जाती हैं¸ परंतु धरती से टकरा कर इसका अधिकांश हिस्सा ताप में बदल जाता है। यदि वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो तो यह ताप उसे पार कर वातावरण के बाहर नहीं जा सकता है। इसका परिणाम धरती के सामान्य ताप में धीरे धीरे वृद्धि के रूप में सामने आता है और औद्योगिक क्रांति के बाद यही हो रहा है। ये समस्या विकासशील तथा अविकसित देशों में बहुत ही ज्यादा है ! ऐसी परिस्थति में भला धरती को गर्म होने से कौन बचा सकता है!ऐसा भी नहीं है कि इसे कोई नहीं समझ रहा है। लेकिन अधिकतर लोग इसे समझते हुए भी नासमझ बने हुए हैं और जो इसे समझ कर इसकी रोक–थाम के उपाय के प्रयास में लगे हुए हुए हैं¸ वे मुठ्ढी भर पर्यावरण–विज्ञानी पूरे मानव समाज की मानसिकता को बदलने में अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं।
जरुरत है की हम स्वयं को तो जागरूक बनाए ही , पूरे समाज और देश को समस्या की गम्भीरता से परिचित कराएं। यद्यपि कुछ जागरूक लोगों के प्रयास पूरी तरह निष्फल भी नहीं हुए हैं। अभी भी कुछ देशों के पास इस समस्या से लड़ने के लिए न तो कोई निश्चित योजना है और न ही सुदृढ़ राजनैतिक इच्छा। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे सरकारी तथा राजनैतिक प्रयास निश्चय ही दूरगामी प्रभाव डालेंगे¸ लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के जरिये धरती को गर्म होने से बचाने का प्रयास तो एक आंदोलन की तरह है जिसमे सभी को शिरकत करना होगा पूरे मनोयोग से । जब तक इस धरती का हर प्राणी इसके प्रति सजग और जागरूक नहीं होगा और निजी तौर पर इसकी जिम्मेदारी नहीं लेगा तबतक पुरे संसार के लिए खतरा बन गए पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का समाधान निकलना असम्भव है।
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