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बिहार के चुनाव में जनता दल यूनाइटेड और लालू यादव की पार्टी के बहुमत में आने के बाद जिस बात का भय पूरे देश को था , वो वहां सरकार बनने के साथ ही परिलक्षित होने लगा . वहां की क़ानून व्यवस्था एक बार फिर चरमरा गयी . ईमानदार सरकारी अधिकारीयों के अपहरण और हत्यायों का सिलसिला चल पड़ा . शासक दल के कार्यकर्त्ता और छुटभैये नेता ठीक उसी तरह दबंगई करने लगे जैसे की उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनते ही उसके कार्यकर्त्ता करते है . वहां आम आदमी के जान की कोई कीमत नहीं . जनता दल यूनाइटेड की विधायिका के लड़के और पति की दबंगई और उद्दंडता का जीता जागता उदाहरण आजकल हम सब के सामने ज्वलंत है . इस मामले में सरकारी निष्क्रियता और पुलिस की लापरवाही हद दर्जे की है . कोर्ट से हत्यारोपी की पुलिस रिमांड न लेना , जनता के हल्ला करने पर दो दिन की पुलिस रिमांड लेने के बावजूद उसे जेल में ही रखना , मारे गए युवक के कपड़ों को पोस्टमॉर्टोम हाउस के बाहर फेंक देना , पीड़ित परिवार को धमकी देना , केस को कमजोर बनाने और सबूत मिटाने जैसा ही है . अभी तक की पुलिसिया कार्यवाही से यही संदेह होता है की पूरे मामले में लीपा पोती की जा रही है . वहां की पुलिस पर सरकारी तंत्र का पूरा दबाव परिलक्षित हो रहा है , ऐसे कमजोर मुख्य मंत्री को प्रधान मंत्री बनने का स्वप्न कदापि नहीं देखना चाहिए जिसकी अपनी सरकार बैसाखियों पर टिकी हो . ये बात जग जाहिर है की किसी भी मामले को जितना लम्बा खींचा जाता है उसमे सच्चे न्याय की सम्भावना उतनी ही धूमिल होती जाती है . बिहार में विभिन्न हत्यायों के मामलों में ऐसा ही हुआ है . लगभग सभी मामले काल के गाल में समां गए लगते है .
वास्तव में अब ऐसा प्रतीत होने लगा है की वहां की जनता इन सब की आदी हो चुकी है . वहां कि जनता को इस बात से मतलब नहीं कि देश में जीडीपी ग्रोथ क्या , विदेशों में भारत कि छवि सुधर रही है या नहीं, देश में कानून व्यवस्था कि क्या स्तिथि है , भ्रष्टाचार पर रोक लगी है या नहीं , वहां तो जातीय समीकरण ऐसा है कि वहां के लोगो को देश के विकास के मुद्दे , योजनाये , रोजगार, उद्योगों के विकास की बातें , प्रभावित नहीं करते . वहां के प्रादेशिक स्तर की समस्याएं , जाति और धर्म पर आधारित जनता कि सोच ही चुनाव में जीत हार का निर्धारण करती है या यूँ कहें की वहां की जनता को बिहार के विकास से, भ्रष्टाचार और लूट से शायद उतना मतलब नहीं . बिहार की जनता को शायद आदत बन चुकी है भीड़ भरी ट्रेनों की छत पर बैठ कर बिहार से बाहर जाकर नौकरी और मजदूरी करने की , वहां के निवासियों की बड़ी संख्या दुसरे प्रदेशों में कमाई करती है . क्योंकि वहां रोजी रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की दिशा में किसी ने कभी सकारात्मक प्रयास किया ही नहीं . वास्तविक रूप में वहां के छात्रों को नक़ल करके परीक्षा पास करने की आदत है, जो अच्छे छात्र है वे बिहार में रुकते कहाँ है . अखबारों और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अक्सर बिहार के स्कूलों में नक़ल की तस्वीरें वहां के स्कूलों की दुर्दशा बयान करती है . विश्लेषक इस बात का संदेह पहले ही जता रहे थे कि इस सरकार में नितीश कुमार की राह बहुत आसान नहीं होगी क्योंकि लालू कि सीटें नितीश से ज्यादा है और इस सच्चाई का लाभ लालू यादव समय समय पर अवश्य ही ले रहे है . यही कारण है की वहां सुशासन और गुड गवर्नेंस के वायदे पूरे होते नहीं दिख रहे और आये दिन लूट , अपहरण और हत्या की घटनाएं घट रही है और राजनैतिक दबाव में पुलिस इसे रोक पाने में सफल नहीं हो पा रही है. इन सब पर विराम लगेगा या नहीं ये प्रश्न आज भी अबूझ पहेली जैसा ही है .
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