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ये इस देश का दुर्भाग्य ही है की यहाँ जिन विषयों या बातों से जनता सीधे तौर पर जुडी हुई है उनकी तरफ न तो जनता का , न नेताओं का और न ही राजनैतिक पार्टियों का ध्यान जाता है वरन ऐसे मुद्दों को हवा दी जाती है जिनसे समाज और देश का नुक्सान ही होता है और इन्ही अवसरों का लाभ उठाने की ताक में बैठे नेता और पार्टियां वोट बैंक की राजनीती करने में जुट जाते है . हैदराबाद विश्विदयालय में रोहित वेमुला के खुदकशी के मामले में ऐसा ही हो रहा है . वहां कांग्रेस जैसी राष्ट्रिय पार्टी के साथ ही साथ आम आदमी जैसी छोटी पार्टिया भी राजनीत करने पहुँच गयी . वास्तव में ये पार्टियां अवसर की तलाश में ही रहती है , पर आश्चर्य है की मालदा जैसी बड़ी घटना पर न तो किसी नेता ने और न ही किसी राजनैतिक पार्टी ने कोई बात की और न ही उन्हें वहां पहुचने की जरुरत समझ में आई क्योंकि वहां उन्हें वोट का कोई फायदा समझ में नहीं आया . ऐसा ही कुछ जहानाबाद में भी हुआ . नेता और पार्टियां मौन साधे हुए है . लेकिन हैदराबाद यूनिवर्सिटी की घटना को तो जाति और धर्म का आधार देकर , उसे तूल देकर समाज और देश को बाटने की कोशिश की जा रही है . कोई दलित का राग अलाप रहा है तो कोई देश में असहनशीलता को मुद्दा बनाने की कोशिश में है . जबकि देश की सरकार निष्पक्ष जांच करा रही है और प्रधान मंत्री ने स्वयं इसे दुखद घटना माना और अपनी संवेदना भी प्रकट की . इसे राजनैतिक मुद्दा बनाने का भी विरोध किया गया फिर भी ये मुद्दा शांत होने का नाम नहीं ले रहा है . राजनैतिक पार्टियों के हवा देने के कारण ही यूनिवर्सिटी के कैंपस में छात्र धरने पर बैठे है और अनशन भी कर रहे है . वास्तव में इस घटना में प्रिंट मीडिया ने तो बहुत ही संयमित रिपोर्टिंग की पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे तूल देकर घटना को वृस्तित करने का कार्य किया . इससे उत्तर भारत की राजनीती भी काफी गरमायी हुई है . लेकिन इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए की क्या यूनिवर्सिटी राजनीती करने की जगह है या वहां केवल पठन पाठन का कार्य ही होना चाहिए . गंभीरता से सोंचे तो ये बहुत बड़ा विषय है और उतना ही चिंताजनक भी . किसी भी परिस्थति में यूनिवर्सिटी या कालेज कैंपस में राजनीती , गुटबाजी को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए . कैंपस में नेतागीरी तो पूरी तरह वर्जित होनी चाहिए . यदि हम समाचारों का विश्लेषण करे तो रोहित वेमुला के मामले में रोहित के परिजनों की अपेक्षा राहुल गांधी , अरविन्द केजरीवाल , ओबैसी जैसे नेता ज्यादा विरोध करते नज़र आये . जाति और धर्म के नाम पर राजनीती करने वाले ये नेता उस समय कहाँ सो रहे थे जब हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पांच दलित छात्रों का निष्कासन हुआ था . यदि उसी समय इस मामले को तरजीह दी गयी होती तो रोहित की आत्महत्या जैसी घटना शायद न होती . वास्तव में अब वो समय आ गया है जब यूनिवर्सिटी या कॉलेज को राजनीतिक अड्डा बनने से बचाया जाये , उसे जाति , धर्म और अमीर , गरीब की सोच से मुक्त किया जाये , वहां राजनैतिक पार्टियों के लोगों के प्रवेश और दखलंदाजी पर गंभीरता से रोक लगा कर बेहतर पढ़ाई का वातावरण तैयार किया जाये . यदयपि है ये मुश्किल कार्य पर शुरुआत तो करनी ही होगी . इस आरम्भ में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ साथ देश का बुद्धजीवी वर्ग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है .
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