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छुट्टियों पर सियासत का दौर

NAV VICHAR
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एक तरफ जहाँ केंद्र सरकार विभिन्न दफ्तरों में सरकारी कामकाज के समय को अधिक से अधिक बढ़ाने की दिशा में जोर लगा रही है वहीँ हमारे कुछ राज्यों में धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर सरकारी छुट्टियों की संख्या बढ़ाई जा रही है . ये राजनितिक सियासत का एक नया फंडा सा बन गया है. खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में.
उत्तर प्रदेश के परिदृश्य में देखा जाये तो यहाँ बदलती सरकारों के साथ छुट्टियों की संख्या में बदलाव आता रहता है . बहुजन समाज पार्टी के शासन काल में जहाँ रैदास जयंती, कांशीराम जयंती के नाम पर छुट्टियों में इजाफा किया गया वहीँ अब समाजवादी पार्टी के शासन में पिछले दिनों चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर , कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिन पर , पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के जन्मदिन पर भी सार्वजनकि अवकाश घोषित कर दिया गया. ऐसा नहीं है की समाजवादी सरकार के नेताओं के मन में इन पूर्व नेताओं के लिए कोई आदर भाव हो, उन्होंने ऐसा सिर्फ धर्म , जाति और संप्रदाय की राजनीती के तहत अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए किया है . उनकी सोच इन छुट्टियों के बहाने जाट, अति पिछड़ों और राजपूतों के बीच अपनी पैठ मजबूत करने की है .
ऐसे निर्णय लेने से इन राज्यों में पूरे वर्ष में सार्वजानिक छुट्टियों की संख्या 50 से 55 के बीच पहुँच गयी है और पूरे वर्ष में लगभग इतने ही रविवार भी होते है. यानि 365 दिनों में लगभग 110 दिन दफ्तरों , सरकारी स्कूलों में कामकाज नहीं होता. ये सरकारे ये भूल जाती है कि इन छुट्टियों से जनता का भला नहीं होता वरन उन्हें नुक्सान ही होता है. स्कूलों में बच्चों के कोर्से पुरे नहीं हो पाते, उनकी परीक्षा समय से संचालित नहीं हो पाती . वैसे उत्तर प्रदेश में छुट्टियों में सियासत कि परम्परा नै नहीं है , पूरवर्ती सरकारे भी ऐसे ही राजनीती करती रही है . केंद्र सरकार द्वारा घोषित छुट्टियों कि संख्या लगभग 25 से 30 है जो कि राज्य सरकारों कि तुलना में आधी है .
वही अगर हम विदेशों से तुलना करे तो वहां सरकारी अवकाश कि संख्या 10 से 12 है. वहां राष्ट्रिय महत्व के अवसरों पर भी काम करने कि परंपरा है और वे ऐसे अवसरों पर काम करके देश के विकास का सन्देश देना चाहते है पर अपने देश में ऐसा कुछ प्रतीत नहीं होता. यहाँ तो स्कूलों कि स्तिथि और भी बदतर है , ज्यादा गर्मी पड़ जाये तो छुट्टी , ज्यादा ठण्ड पद जाये तो भी छुट्टी . आखिर ये सरकारे विकास कि बात कैसे सोच सकती है जब सियासत करने का माध्यम ऐसा हो . सरकार में बैठे लोग और नेता शायद ये भूल कर रहे है कि जनता अब सब जान चुकी है, वो उनके ऐसे लालीपाप वाले झांसे में नहीं आने वाली. वो अब जाति , धर्म के नाम पर वोट कि राजनीत करने वालों को नकार रही है क्योंकि उसे पता है कि ऐसे लोगों से न तो उनका भला होने वाला है न ही देश का भला . उसे तो विकास चाहिए , भ्रस्टाचार मुक्त शासन चाहिए. सरकारों को भी तुच्छ छुट्टियों को सियासत से बाहर निकलकर विकास वादी सोच अपनानी चाहिए . इसी में देश कि भलाई है .

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