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डर्टी पॉलिटिक्स का शिकार “आप”

NAV VICHAR
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दिल्ली में जब आम आदमी पार्टी चुनाव में जीती तो ये इतना आश्चर्यजनक नहीं था जितना इस पार्टी को इतनी अधिक सींटे मिलने की बात। जितने जोश, उत्साह और विस्वास से जनता ने “आप” को बहुमत दिया , अब लगता है कि ये पार्टी उसे सहेज नहीं पा रही है। एक माह भी नहीं बीते , इस पार्टी की छीछालेदर होने लगी.
बेचारी जनता भी क्या करे , उसने तो बड़े अरमानो से “आप” को ये मानकर सम्मान दिया था कि ये लोग “डर्टी पॉलिटिक्स ” का हिस्सा नहीं है , पर ऐसा था नहीं। हाल ही में के. सी. बोकाडिया की फिल्म “डर्टी पॉलिटिक्स ” प्रदर्शित हुई है , इस फिल्म को भी जनता ने नकार दिया , कारण ये है कि जब देश में जगह जगह हर राजनितिक पार्टी के अन्तर्गत डर्टी पॉलिटिक्स चल रही है तो जनता पैसे खर्च करके ऐसी ही फिल्म क्यों देखने जाएगी। वास्तव में दिल्ली की जनता इस समय ठगा सा महसूस कर रही है। दिल्ली में सरकार गठन के बाद कुछ ही दिनों में “आप” के दो दिग्गज नेताओं के विरुद्ध उठा पटक शुरू करना इस पार्टी को भी अन्य पार्टियों की श्रेणी में खड़ा कर देती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे वरिष्ठ नेताओं के साथ आप पार्टी के मुखिया केजरीवाल और उनके अन्य साथियों का बर्ताव अच्छा नहीं रहा। जब ये दोनों नेता खुद ही राजनितिक मामलो की कमेटी से बाहर जाना चाहते थे तो उन्हें निकालने की क्या जरुरत थी।
शायद उनका ये बर्ताव सत्ता के गुरुर का परिचायक है। सत्ता के साथ जो अहंकार आता है उसके कारण आदमी के सही गलत का फैसला भी प्रभावित होता है। यद्यपि केजरीवाल जी ने शुरू में ही सत्ता के अहंकार से पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बचने की सलाह दी थी। ये तो सच है आम आदमी पार्टी की कल्पना अरविन्द केजरीवाल के बगैर नहीं की जा सकती लेकिन कभी कभी उनके द्वारा अकारण धारण किये जाने वाले मौन से उनके राजनितिक नेतृत्व की क्षमता पर प्रशन चिन्ह खड़ा हो जाता है और फिर वही लगता है कि है तो ये डर्टी पॉलिटिक्स ही। वैसे डर्टी पॉलिटिक्स दोधारी तलवार की तरह होती है , इसकी चोट कभी कभी वार करने वाले को भी पहुँचती है। ये बड़े छोटे में भेद नहीं करती। स्टिंग आपरेशन करने में माहिर “आप ” आजकल स्वयं नये नये स्टिंग ऑपेरशन में फंस रही है। ये तो वही बात हुई कि कभी कभी दूसरों पर चलने वाली चाल खुद पर ही चल जाती है। प्रशांत भूषन और योगेन्द्र यादव के मामले में अरविन्द केजरीवाल की सोच, उनका मौन “आप” की डर्टी पॉलिटिक्स का एक नमूना प्रतीत होता है। उनके इस व्यव्हार से “आप ” के जमीनी कार्यकर्ता और सबसे अधिक निराशा दिल्ली की आम जनता को ही हुआ है।

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